आइये जानते है..लालकृष्ण आडवानी कि कहानी ,उनके ही जुबानी

भिलाई NewsT20 | हिंदुत्व की राजनीति के पहले ‘पोस्टर ब्वॉय’ एलके आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ राजनीति के नए मंच बीजेपी की स्थापना की थी| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से निकले इन दोनों नेताओं की पहली मुलाकात राजस्थान के कोटा रेलवे स्टेशन पर हुई थी. ये मुलाकात एक दिन भारतीय राजनीति में दो अलग-अलग शख्सियतों को मिलाकर एक नाम अटल-आ़डवाणी बना देगी, ये किसी ने उस दिन न सोचा होगा| उस समय अटल-आडवाणी की जोड़ी ने देश में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाई थी|और आज भारतीय जनता पार्टी जो कुछ भी है उसके संगठन को तैयार करने के पीछे लालकृष्ण आडवाणी की कड़ी मेहनत है| लेकिन बहुत कम लोगों को यह बात पता है कि एलके आडवाणी ने अपने बेटे को सक्रिय राजनीति में लाने से इनकार कर दिया था| ये किस्सा है साल 1989 का…….

अपने बेटे को सक्रिय राजनीति में न लाने के पीछे क्या था कारण लालकृष्ण आडवानी का ? 
साल 1989 में लोकसभा चुनाव होने थे, पार्टी के शुरुआत से ही लालकृष्ण आडवाणी भाई-भतीजावाद का विरोध कर रहे थे| ऐसे में आडवाणी ये नहीं चाहते थे कि उनके बेटे गांधीनगर से चुनाव लड़ें, जबकि वो इस बात को पूरी तरह जानते थे, कि यदि उनके बेटे जयंत वहां से चुनाव लड़ेगा तो उस इलाके से आसानी से जीत जायेगा|

विश्वंभर श्रीवास्तव की एक किताब ‘आडवाणी के साथ 32 साल’ में एक वाक्य का जिक्र किया गया है, जिसमे इस किताब के मुताबिक आडवाणी ने अपने पुराने दोस्त और अहमदाबाद के पूर्व सांसद हरिन पाठक से कहा है, “जयंत गांधीनगर से आसानी से जीत सकते हैं, लेकिन मैं उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दूंगा,”उस वक्त आडवाणी के दोस्त पाठक ने उन्हें सलाह दी, कि वो नई दिल्ली की सीट को अपने पास रखें और अपने बेटे जयंत को गांधीनगर से लड़ने दें| इसके बाद 1989 में आडवाणी दो सीटों दिल्ली और गांधीनगर से चुनाव लड़ा| दोनों ही सीटों पर उन्हें जीत हासिल हुई, हालांकि बाद में दिल्ली सीट से इस्तीफा देकर गांधीनगर सीट को अपने पास रखने का फैसला किया|

बाद में जब दिल्ली में उपचुनाव हुए तो कांग्रेस उम्मीदवार राजेश खन्ना को यहां से जीत हासिल हुई| राजनीति में भाई-भतीजावाद का विरोध करने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने अपने बेटे जयंत की राजनीतिक पारी में ब्रेक लगाने पर भी नहीं हिचके|

हालांकि गांधीनगर में अपने पिता और फिर बीजेपी के लिए 1991 से प्रचार कर रहे जयंत आडवाणी ने इकोनॉमिक्स टाइम्स को दिए इंटरव्यू में चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की थी. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अच्छे संबंधों के बावजूद उन्हें अब तक इसका मौका नहीं मिला|

कराची में पैदा हुए थे लालकृष्ण आडवाणी
लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर 1927 को कराची में हुआ था| उनके स्कूल की  पढ़ाई भी वहीं  से हुई थी| 14 साल की उम्र तक आते-आते वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए| 19 साल की उम्र तक आडवाणी ने पढ़ाई भी पूरी कर ली| और कुछ समय वो कॉलेज भी गए|

बंटवारे के बाद कराची छोड़ने के फैसले के बारे में बात करते हुए 1997 में एंड्रयू वाइटहेड को दिए इंटरव्यू में आडवाणी ने बताया की, “मुझे 11 या 12 सितंबर 1947 का डॉन अखबार का अंक अच्छी तरह से याद है| एक तरफ आरएसएस रैली में गांधी के संबोधन का जिक्र था, जिसमें उन्होंने कश्मीर में कबायलियों को भेजने के लिए पाकिस्तान की आलोचना की थी| उन्होंने कहा था कि अगर पाकिस्तान इसी तरह का रवैया रखता है तो कौन जानता है कि भारत और पाकिस्तान में जंग छिड़ जाए और ये नहीं होना चाहिए.”उन्होंने आगे बताते हुये कहा, “अखबार के दूसरे पन्ने पर पाकिस्तान में आरएसएस की साजिश का आरोप लगाते हुए बम धमाके की हेडलाइन छपी थी| एक हेडलाइन थी ‘RSS Plot to Blow Up Pakistan Unearthed’ और दूसरी तरफ ‘Gandhi Speaks to RSS Volunteers in Terms of War’ हेडिंग लिखी गई थी.”

इसी इंटरव्यू में उस दौर को याद करते हुए आडवाणी ने कहा था कि आरएसएस से जुड़े होने के कारण इन सब से उन्हें बिल्कुल डर नहीं लगा था | हालांकि बाद में देश के आजाद होने के बाद 12 सितंबर 1947 को उन्होंने कराची छोड़ दिया|

उस समय वो अकेले थे और साथ ही ये पहली बार था जब उन्होंने प्लेन का सफर किया था| आरएसएस से जुडे होने के कारण लोगों ने उन्हें ये सलाह दी थी कि अकेले ही अभी निकल जाइए| इसके लगभग एक महीने के बाद उनके परिवार ने कराची छोड़ा था| उस समय वो अकेले थे और साथ ही ये पहली बार था जब उन्होंने प्लेन का सफर किया था|

पाकिस्तान बनने के बाद आडवाणी लगभग एक महीने तक वहां रहे थे| इस बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया था कि पाकिस्तान बनने की खुशी वहां किसी को नहीं थी|बंटवारे के दिन जब स्कूली बच्चों को मिठाई बांटी गई तो वो नहीं खा रहे थे| मेरे साथ किसी को भी आजादी जैसा कुछ महसूस नहीं हो रहा था| हालांकि जब भी कराची के बारे में आडवाणी से पूछा गया तो उन्होंने इस शहर से विशेष लगाव होने की बात कही|अटल बिहारी वाजपेयी के साथ ऐसी दोस्ती हुई कि जिंदगीभर याद रहेगी|
आजादी के बाद भारत आए लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस का दामन नहीं छोड़ा| अटल के साथ आडवाणी संघ के कामों में शामिल थे| वो 50 का दशक था जब एक नई पार्टी के निर्माण के लिए नई दोस्ती बनने जा रही थी. उस वक्त वाजपेयी संघ के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ राजस्थान की यात्रा पर थे| कहा जाता है इसी दौरान कोटा स्टेशन पर दोनों पहली बार एक-दूसरे से टकराए थे|

फिर जब वाजपेयी लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे तो आडवाणी को जनसंघ के विजयी सांसदों की मदद के लिए दिल्ली बुलाया गया| इसी दौरान वाजपेयी औरआडवाणी की दोस्ती गहरी हो गई.

उस समय दोनों की शादी नहीं हुई थी| ऐसे में पार्टी के हर कामकाज में दोनों पूरी तरह एक्टिव रहते, वहीं खाली समय मिलता तब भी दोनों साथ में ही फिल्में देखते और खाते-पीते|

लालकृष्ण आडवाणी को हमेशा साथ रखते थे वाजपेयी
साल 1957 में दीन दयाल उपाध्याय के कहने पर वाजपेयी को लोकसभा भेजा गया| उन्होंने अपनी बेहतरीन भाषण की कला से सदन में सभी को लुभा लिया और विपक्षी नेता के रूप में अपनी अच्छी पहचान बना ली| हालांकि इस दौरान भी उन्होंने दोस्त आडवाणी का साथ नहीं छोड़ा और वक्त मिलने पर उनके साथ ही समय गुजारते|

वाजपेयी के साथ आगे बढ़े आडवाणी
फिर जब जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने साल 1968 में अचानक दुनिया को अलविदा कहा तो पार्टी के अध्यक्ष की कमान वाजपेयी के हाथ में आई| उन्होंने पांच सालों तक अध्यक्ष पद को संभाला| जब उनके कार्यकाल की समाप्ति हो रही थी तो उन्होंने इसकी कमान लालकृष्ण आडवाणी के हाथ में दे दी|

साथ मिलकर रखी बीजेपी की नींव
साल 1975 में देश में आपातकाल लगा हुआ था| एक दिन वाजपेयी और आडवाणी बैंगलोर में एक साथ बैठक कर रहे थे| बैठक के बाद जब दोनों नाश्ता करने बैठे तो उसी वक्त उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया| जिसके बाद दोनों को जेल भेज दिया गया| जेल में दोनों ने कुछ वक्त साथ में बिताया, कुछ समय बाद वाजपेयी की तबीयत बिगड़ गई और उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती करवाया गया|

फिर आपातकाल के बाद जब देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसमें वाजपेयी को विदेश मंत्री तो वहीं आडवाणी को सूचना-प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई| जनता पार्टी की सरकार के दौरान दोनों की दोस्ती बनी रही, लेकिन जब संघ के मुद्दे पर सरकार गिरी तो आडवाणी और वाजपेयी ने कुछ नेताओं के साथ मिलकर 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की|
बीजेपी की नीति गांधी के विचारों पर आधारित थी| 1984 में हुए चुनाव में पार्टी ने 2 सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन 1989 में आडवाणी और वाजपेयी की जोड़ी पूरे देश में बड़ी जीत हासिल करने वाली पार्टी बनी थी| इसके बाद राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ और बीजेपी ने कांग्रेस की राजनीति को बहुत पीछे छोड़ दिया|

वास्तव में राम मंदिर ने आंदोलन ने बीजेपी को मजूबत करने का काम किया था. इस आंदोलन के सूत्रधार लालकृष्ण आडवाणी थे| उन्होंने गुजरात के सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक रथयात्रा निकाली थी|हालांकि बिहार में उनको गिरफ्तार कर लिया गया था| उस समय वहां पर लालू यादव की सरकार थी|

NewsT20-PriyaDhurve

 

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