मां दुर्गा की मूर्ति में तवायफ के कोठों की मिट्टी क्यों मिलाई जाती है? इसके पीछे छिपा है अनोखा राज़...

नवरात्रि का पर्व आते ही देशभर में मां दुर्गा की प्रतिमाओं की स्थापना शुरू हो जाती है। मूर्तिकार महीनों पहले से ही प्रतिमा निर्माण में लग जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि मां दुर्गा की मूर्ति बनाने में तवायफों के कोठों की मिट्टी भी मिलाई जाती है? यह परंपरा सुनकर कई लोग हैरान रह जाते हैं, लेकिन इसके पीछे गहरी धार्मिक और सामाजिक मान्यता जुड़ी हुई है।

पुन्य माटी की परंपरा

मूर्ति निर्माण की शुरुआत एक खास मिट्टी से होती है, जिसे “पुन्य माटी” कहा जाता है। इस मिट्टी में गंगा तट की पवित्र मिट्टी के साथ-साथ तवायफों के आंगन की मिट्टी भी शामिल होती है। मान्यता है कि मां दुर्गा की मूर्ति तभी पूर्ण होती है जब उसमें समाज के हर वर्ग का अंश शामिल हो।

तवायफ की कोठी की मिट्टी क्यों जरूरी?

मूर्तिकारों के अनुसार, तवायफों की कोठी की मिट्टी इस बात का प्रतीक है कि मां दुर्गा सिर्फ साधु-संतों या भक्तों की देवी नहीं हैं, बल्कि समाज के उन तबकों की भी संरक्षिका हैं, जिन्हें अक्सर हाशिए पर रखा गया। यह संदेश देता है कि देवी की कृपा सब पर समान रूप से बरसती है।

पीढ़ियों से चली आ रही मान्यता

यह परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही है। मूर्तिकार कहते हैं कि मिट्टी सिर्फ खेत या नदी से नहीं लाई जाती, बल्कि उसमें वह आस्था भी मिलाई जाती है जो समाज के हर हिस्से से आती है। यही कारण है कि तवायफों के आंगन की मिट्टी को ‘पुन्य माटी’ में शामिल किया जाता है।

मूर्ति निर्माण की सबसे अहम कड़ी

मूर्ति बनाने की प्रक्रिया में मिट्टी का चयन सबसे महत्वपूर्ण चरण है। मां दुर्गा की आंखें बनाने से लेकर उनके शस्त्रों की सजावट तक, हर काम बारीकी से किया जाता है। लेकिन मूर्ति में प्रयोग की जाने वाली ‘पुन्य माटी’ ही उस प्रतिमा को धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से पूर्ण बनाती है।

मां दुर्गा का संदेश

इस परंपरा का सार यही है कि मां दुर्गा सबकी हैं – चाहे वह भक्त हों, गृहस्थ हों या समाज से उपेक्षित लोग। तवायफ की कोठी की मिट्टी मूर्ति में मिलाकर यही संदेश दिया जाता है कि मां की शक्ति और कृपा हर किसी पर समान रूप से बरसती है।

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