नई दिल्ली [News T20 ] | सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि सार्वजनिक पद पर नियुक्त लोगों को आत्म-प्रतिबंध पर जोर देना चाहिए और ऐसी बेतुकी बातों से बचना चाहिए जो अन्य देशवासियों के लिए अपमानजनक हैं. इस बात पर प्रकाश डालते हुए कि इस तरह के व्यवहार को रोकने के लिए कोई तंत्र नहीं होने के कारण सार्वजनिक पद पर आसीन लोग अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हैं, सर्वोच्च अदालत ने कहा कि यह दृष्टिकोण हमारी संवैधानिक संस्कृति का हिस्सा है और इस संबंध में आचार संहिता बनाने की कोई जरूरत नहीं है.
इसके साथ ही, न्यायमूर्ति एस. ए. नजीर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस संबंध में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया कि क्या किसी जनप्रतिनिधि के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है? पीठ ने कहा कि किसी को प्रभावित करने वाले जनप्रतिनिधियों के भाषण के संबंध में नागरिकों के लिए हमेशा एक सिविल उपचार उपलब्ध होता है.
पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में चाहे जो भी कहा गया हो, देश में एक संवैधानिक संस्कृति है, जिसमें जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के बयानों पर अंतर्निहित सीमा या प्रतिबंध है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से सहमति व्यक्त की लेकिन आग्रह किया कि अदालत को इस मामले पर संसद को फैसला लेने देना चाहिए.
अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को बताया कि शीर्ष अदालत ने इस मुद्दे पर तहसीन पूनावाला और अमीश देवगन द्वारा दायर याचिकाओं पर दो फैसले दिए हैं और उन फैसलों के आलोक में मामले की सुनवाई करने की कोई आवश्यकता नहीं है. उन्होंने कहा कि मामले में उठाए गए सवाल अमूर्त हैं और उन मुद्दों पर आदेश पारित करना समस्याजनक होगा.
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा, ‘यह अंतर्निहित है और इस अदालत को इस संबंध में आचार संहिता तैयार करने की कोई जरूरत नहीं है. कोई भी व्यक्ति जो सार्वजनिक पद पर है या लोक सेवक है… एक अलिखित नियम है और यह संवैधानिक संस्कृति का हिस्सा है कि वे आत्म-प्रतिबंध का पालन करेंगे हैं और ऐसी बातें नहीं करेंगे हमारे अन्य देशवासियों के लिए अपमानजनक हों.’
जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा, ‘यह स्वाभाविक है कि सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति को संयम बनाए रखना चाहिए. यह एक अलिखित नियम है और संविधान की संस्कृति का हिस्सा है और उन्हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिए जो अपमानजनक हो और लोगों के एक वर्ग को प्रभावित करती हो.’ संविधान पीठ ने मामले पर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अन्य पक्षों के वकीलों की दलीलें सुनीं.
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि इस तरह के मामलों से निपटने के लिए आईपीसी के भीतर प्रावधान हैं और अतिरिक्त प्रतिबंध लगाना विधायी दायरे में आता है और संसद बहस कर सकती है और कानून बना सकती है. उन्होंने कहा कि लोक सेवक आचार संहिता के तहत काम करते हैं और इसका उल्लंघन करने पर उन्हें परिणाम भुगतने होंगे.
पीठ में न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना, न्यायमूर्ति वी रामसुब्रमणियन और न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना भी शामिल हैं. पीठ ने विभिन्न दलीलों को सुनने के बाद कहा, ‘हम जनप्रतिनिधियों के लिए आचार संहिता कैसे बना सकते हैं? ऐसा करके हम विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण कर रहे होंगे.’
मेहता ने कहा कि यह एक अकादमिक सवाल से अधिक अहम है कि क्या किसी विशेष बयान के खिलाफ कार्रवाई के लिए अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए रिट याचिका दायर की जा सकती है. तीन न्यायाधीशों की पीठ ने पांच अक्टूबर 2017 को विभिन्न मुद्दों पर फैसला सुनाने के लिए मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया था.
इन मुद्दों में यह भी शामिल है कि क्या कोई जनप्रतिनिधि या मंत्री संवेदनशील मामलों पर विचार व्यक्त करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा कर सकता है. इस मुद्दे पर आधिकारिक घोषणा की आवश्यकता उत्पन्न हुई क्योंकि तर्क थे कि एक मंत्री व्यक्तिगत राय नहीं ले सकता और उसका बयान सरकारी नीति के मुताबिक होना चाहिए.