भिलाई [न्यूज़ टी 20] नई दिल्‍ली : दुनियाभर की नजर इस समय पाकिस्तान पर है. कल वहां इमरान ख़ान की सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर वोट हैं. पहले ये अविश्वास प्रस्ताव 30 मार्च को लाया गया था, जिस पर 3 अप्रैल को वोटिंग तय थी.

लेकिन तीन अप्रैल को जो कुछ हुआ, उससे वहां के लोकतंत्र का लगभग मखौल बनता नज़र आया. दरअसल, डिप्टी स्पीकर ने अविश्वास प्रस्ताव ही ख़ारिज कर दिया. उन्‍होंने इसे विदेशी ताक़तों की साज़िश बताया और देशद्रोह से जोड़ दिया.उधर,

इमरान ख़ान ने राष्ट्रपति को असेंबली भंग करने की सिफ़ारिश भेज दी. राष्ट्रपति ने सिफ़ारिश मंज़ूर कर ली. ये सब उस सूरत में हो रहा था जब ये साफ़ था कि सदन में इमरान ख़ान विश्वास मत खो चुके हैं.

विपक्ष के पास अविश्वास मत पर मुहर के लिए ज़रूरी 172 से कहीं ज़्यादा सांसद थे. असेंबली में ‘इमरान गो’ के नारे लग रहे थे. पूरे पाकिस्तान में अफ़रातफ़री का माहौल था.

लेकिन इस मोड़ पर पाकिस्तान की लोकतांत्रिक संस्थाओं ने साबित किया कि वो अपनी जम्हूरियत का इतनी आसानी से मज़ाक बनने देने को तैयार नहीं. पाकिस्‍तान के सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ओर से इस पूरे मामले का संज्ञान लिया.

विपक्ष ने भी अदालत का दरवाज़ा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने तीन दिन की सुनवाई की. गुरुवार रात अपने फ़ैसले में उसने सबकुछ पलट दिया.पाकिस्तान की संसद बहाल कर दी.

असेंबली भंग करने के राष्ट्रपति के फ़ैसले को रद्द कर दिया.डिप्टी स्पीकर के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया.अविश्वास मत पर 9 अप्रैल- यानी कल बहस कराने की बात कही अब फ़ैसले की घड़ी आ गई है.

पाकिस्तान में सबकी ज़ुबान पर एक ही सवाल है- आगे क्या होगा? कम लोगों को यक़ीन है कि इमरान बच पाएंगे. उन्हें जाना ही होगा. लेकिन उसके बाद क्या. फिलहाल इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ जो साझा विपक्ष है,

उसने नवाज़ शरीफ़ के भाई शहबाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही है. लेकिन तय है कि यह इंतज़ाम भी बहुत दिन नहीं चलेगा. देर-सबेर पाकिस्तान को चुनाव में उतरना होगा और अपने विकल्प तलाशने होंगे.

लेकिन इस पूरे मामले ने एक मौक़ा सुलभ कराया है कि हम बदलते पाकिस्तान को, उसकी बदलती राजनीति को समझने की कोशिश करें. नजर डालते हैं पाकिस्‍तान की सियासत के खास ‘खिलाड़‍ियों’ पर..

इमरान ख़ान : 1992 में विश्‍वकप में पाक़िस्तान की जीत की कप्तानी के 4 साल बाद ही इमरान ने सियासत में क़दम रख दिया. उनकी पार्टी पाक़िस्तान तहरीक-ए-इंसाफ को 2002 के चुनावों में महज़ एक सीट मिली.

खुद इमरान की. 2008 के चुनाव का बहिष्कार करने के बाद 2013 तक इमरान की पार्टी ने अपनी जगह रूलिंग पार्टी और विपक्षी पार्टी के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर पक्की कर ली.

इमरान ने युवा और शहरी मध्यम वर्ग के लोगों को भ्रष्टाचार मुक्त पाक़िस्तान के सपने दिखाए और अमेरिका की ड्रोन स्ट्राइक से खौल रहे गुस्से का भी फायदा उठाया और 2018 में सत्ता पर क़ाबिज़ हो गए.

लेकिन उनकी सियासी राह आसान नहीं रही और हर वज़ीर-ए-आज़म की तरह उनका भी कार्यकाल पूरा होने से पहले बोरिया बिस्तर बंधना तय माना जा रहा है. 

शहबाज़ शरीफ़ : तीन बार पाक़िस्तान के प्रधानमंत्री रहे नवाज़ शरीफ के भाई हैं.नवाज़ पर सरकारी पद के लिए चुनाव लड़ने की पाबंदी है और वो यूके में हैं.शहबाज़ पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री रहे हैं और अबी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) के अध्यक्ष हैं.

इनके सख़्त प्रशासक होने के काफी चर्चे हैं और हमेशा काम में डूबे रहने वाले शख्स हैं. सेना से इनके रिश्ते अपने भाई के मुक़ाबले कहीं बेहतर माने जाते हैं, जिनका तख़तापलट सेना कर चुकी है.

कई शादियों और लंदन, दुबई में जुटाई प्रॉपर्टी के बावजूद आम लोगों में लोकप्रिय हैं.इमरान के बाद इन्हीं के प्रधानमंत्री बनने के चर्चे हैं.

बिलावल भुट्टो ज़रदारी: बिलावल पाक़िस्ताव के सबसे बड़े सियासी परिवार से हैं. बेनज़ीर भुट्टो के बेटे हैं और ज़ुलफ़िकार अली भुट्टो के नवासे है.19 साल की उम्र में उन्हें पाक़िस्तान पीपुल्स पार्ट का अध्यक्ष चुना गया,

तब वो ऑक्सफोर्ड में अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे थे.बिलावल की कोशिश अपने पिता आसिफ अली ज़रदारी के नेतृत्व में हाशिये पर पहुंची पाटच् को दोबारा खड़ी करने की है.बिलावल के पिता को नवाज़ शरीफ ने भ्रष्टाचार के लिए जेल का रास्ता दिखाया.

पाकिस्तान की आधी से ज़्यादा जनता 22 साल से कम उम्र की है ऐसे में सोशल मीडिया पर बिलावल हिट हैं.अंग्रेज़ी के पुट के साथ उर्दू बोलने के चलते उनका कई बार मज़ाक भी बनता रहा है

पाक़िस्तानी फौज: 70 साल से ज़्यादा पाक़िस्तान में फौज ने ही राज किया है.जनरल मुशर्रफ के सत्ता छोड़ने के सालों बाद भी फौज सत्ता और सरकार पर अपना क़ाबू बनाए हए है.

सुरक्षा मामले, विदेश मामले और अर्थव्यवस्था में उसका पूरा दख़ल है. राजनेता फौज के प्रभाव को समझते हैं और उसके दर पर सजदा भी करते हैं.

2018 में इमरान की जीत के बाद पाक़िस्तान के इतिहास में महज़ दूसरी बार सत्ता राजनेता से राजनेता के पास गई. इमरान के इस संकट के पीछे भी फौज का नाख़ुश होना ही माना जा रहा है.

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