राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू यादव इन दिनों पटना से हजारों मील दूर सिंगापुर में स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। उनके वापस लौटने की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, बिहार की राजनीति में गरमाहट साफ-साफ महसूस की जा सकती है। नीतीश सरकार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के बयान पर जारी घमासान हो या फिर उपेंद्र कुशवाहा के बागी तेवर, बिहार में इन इनों कई सियासी चैप्टर खुले हुए हैं।

ऐसा माना जा रहा है कि प्रदेश की राजनीति में लोकसभा चुनाव से पहले एक बड़ा सियासी भूचाल आने वाला है। जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा लगातार नीतीश कुमार पर हमले की धार तेज करते जा रहे हैं। उनके राजनीतिक हमले अब व्यक्तिगत हो चुके हैं। इस नई लड़ाई के कई पहलू हैं। यह सिर्फ नीतीश बनाम कुशवाहा की लड़ाई नहीं है। यहां पर्दे के पीछे नीतीश बनाम बाकी सब की बात कही जा रही है।

इसे समझने के लिए आपको बीते कुछ विधानसभा चुनावों तक जाना पड़ेगा। बिहार में पिछले विधानसभा चुनावों में जेडीयू के दो नारों की बड़ी चर्चा हुई थी। पहला नारा था ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’ और दूसरा नारा था ‘क्यूं करें विचार, ठीके तो है नीतीश कुमार’। वैसे तो ढाई साल देशकाल परिस्थिति के लिए बहुत लंबा वक्त नहीं होता है, लेकिन सियासत में कभी-कभी इतना अंतराल एक युग जैसे होता है और राजनीति 360 डिग्री से घूम जाती है। संदर्भ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का हो तो फिर क्या ही कहना…क्योंकि वह 2017 और 2022 में इसे साबित कर चुके हैं।

जेडीयू को कितना नुकसान पहुंचा पाएंगे कुशवाहा?

फिलहाल बिहार में बहार तो नहीं है, लेकिन भरपूर बबाल है। बिहार में इस साल ही नया मुख्यमंत्री या नई सरकार की पटकथा लिखी जा रही है। उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू में हिस्सेदार हैं या किरायेदार, ये विवाद हो सकता है कि फरवरी में सुलझ जाए। नीतीश कुमार कह चुके हैं कि जिसे जाना है जाए। उपेंद्र कुशवाहा की ओर से भी इसका जवाब आया था कि बड़े भाई के कहने से छोटा भाई ऐसे हिस्सा छोड़कर थोड़े चला जाएगा, मुझे अपना हिस्सा चाहए।

इसके साथ ही यह तय हो चुका है कि उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू से जाएंगे। प्रतीक्षा सिर्फ इस बात की हो रही है कि क्या कीमत वसूलकर यानी कितना हिस्सा लेकर जाएंगे या कितना नुकसान करके जाएंगे। अपनी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को पुनर्जीवित करके अगले कुछ दिनों में उपेंद्र कुशवाहा एक बार फिर एनडीए का हिस्सा बन सकते हैं।

पर असली खेल ये नहीं है। बिहार की सियासत में कोई बड़ा खेल हो और वो लालू प्रसाद यादव के ईर्द-गिर्द न हो ये तो संभव ही नहीं है। बिहार के सियासी चौसर पर असली बाजी तब खेली जाएगी जब सिंगापुर में इलाज करा रहे लालू प्रसाद यादव पटना लौटेंगे।

RJD लगातार कर रही तेजस्वी को CM बनाने की मांग

नीतीश कुमार घोषणा कर चुके हैं कि 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव महागठबंधन डिप्टी सीएम तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ेगा। नीतीश यह कहकर आरजेडी की उस बेचैनी को शांत करना चाहते थे कि आखिर तेजस्वी सीएम कब बनेंगे। पर आरजेडी की बेचैनी इससे शांत नहीं हुई है। गोपलागंज और कुढ़नी के उपचुनाव में महागठबंधन की हार से यह बढ़ ही गई है।

आरजेडी के बड़े तबके को लगने लगा है कि नीतीश के पास वोट ट्रांसफर करने की हैसियत अब बची नहीं है।  ऐसा मानने वालों को लगता है कि 2025 तक इंतजार के बजाय अगले लोकसभा चुनाव से पहले ही सीएम की कुर्सी पर तेजस्वी काबिज हो जाएं।

आरजेडी से हुई थी नीतीश कुमार की डील?

इसकी बानगी पिछले साल जगदानंद सिंह के उस बयान से भी मिलती है जो कि कहते हैं कि देश नीतीश कुमार का इंतजार कर रहा है और बिहार तेजस्वी यादव का इंतजार कर रहा है। उन्होंने यह तक कहा है कि तेजस्वी 2023 में ही सीएम बन जाएंगे। अब सारा फसाद 23 और 25 के बीच में ही है। लॉजिक से भी देखें तो नीतीश को अगले साल तथाकथित देश बचाने की मुहिम पर निकलना है तो इसी साल तेजस्वी को सीएम की कुर्सी ट्रांसफर हो जानी चाहिए।

आरजेडी के लोग इसके लिए बार-बार डील की याद भी दिला रहे हैं और दूसरी तरफ उपेंद्र कुशवाहा इसी तथाकथित डील को लेकर नीतीश से सवाल भी पूछ रहे हैं। हालांकि, डील क्या है ये सार्वजिनक रूप से कोई नहीं बता रहा है।

तेजस्वी को CM बनाने के लिए RJD का दूसरा फॉर्मूला

ऐसे में अब आरजेडी उस दिशा में बढ़ने लगी है कि तेजस्वी नीतीश के समर्थन से सीएम बने तो ठीक नहीं तो उसे उनके बिना भी अपने नेता को सीएम बनाने से गुरेज नहीं है। इस दिशा में पर्दे के पीछे खेल भी शुरू हो चुका है। तेज प्रताप यादव और मनोज झा ने बीजेपी एक नेता से रविवार को मुलाकात की है तो ये तो साफ है कि खिचड़ी पकनी शुरू हो गई है, लेकिन ये तैयार तब होगी जब लालू इसे ग्रीन सिग्नल देंगे।

बीजेपी देगी आरजेडी का साथ?

आप सोच सकते हैं कि तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने में बीजेपी क्या रोल अदा करेगी? तो इसका जवाब है कि आरजेडी के पास जेडीयू के बिना 116 विधायकों का समर्थन प्राप्त है। बिहार में आरजेडी के 79, कांग्रेस के 19, भाकपा माले के 12, सीपीआई के 4, एआईएमआईएम के एक और एक निर्दलीय विधायक हैं। ऐसे में जेडीयू के बिना तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए मात्र 7 विधायकों की जरूरत होगी।

दूसरी जिस चीज की जरूरती होगी वह है कि गवर्नर मौन सहमति दे दें और यहीं उसे केंद्र यानी बीजेपी के समर्थन की जरूरत होगी और जाहिर है यह पर्दे के पीछे से होगा। अब सवाल उठता है कि तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनने में बीजेपी क्यों मदद करेगी। इसका जवाब यह है कि बीजेपी को नीतीश से पुराना हिसाब चुकता करना है। उन्हें बेआबरू करके पदच्युत करने से बीजेपी के कुछ नेताओं के कलेजे को ठंडक मिलेगी।

दूसरा पॉइंट यह है कि जेडीयू में टूट से अगर तेजस्वी की सरकार बनती है तो लंबे समय में नीतीश और उनकी पार्टी बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक हो जाएगी। ये स्थिति बीजेपी और आरजेडी दोनों के लिए मुफीद होगी, क्योंकि दोनों को बाइपोलर चुनाव सूट करता है। आप अगर इन तामाम समीकरणों से किसी राय पर पहुंच गए हैं तो यह जल्दबाजी होगा, क्योंकि ये बिहार की राजनीति है। नीतीश कुमार भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। ‘परिस्थितियों के मुख्यमंत्री’ नीतीश कुमार फिर से परिस्थितियां बदल दें तो सारा खेल पलट भी सकता है।

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